वहाँ सब कुछ रोज जैसा ही था- सफेद उखड़े मकान, बगैर पलस्तर की हुई उनकी ईंट झाँकती दीवारें, बाहर निकले चबूतरे, उन पर बैठकर बतियाती औरतें, हुक्का गुड़गुड़ाते बूढ़े, खपरैलों पर बैठी गोरैया, खिड़कियों से झाँकते चेहरे और चैत की तपिश में सुलगती दुपहरियाँ।
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